by Abbas Ali Bohari
This is a heartfelt poem about a Bohra father’s greatest regret. The poet, who hails from Indore, India, spent years praying for the birth of a child and was finally blessed with a daughter. A few years later, he found out that she had been subjected to khatna, or female genital cutting, behind his back. This is a poem about his grief for her, his regret, and his plea to the world to end the cutting of girls in the name of religion.
एक पिता का अफ़सोस
कई बरसों रहे दोनों बेकरार
रहमान ने लगाया बेड़ा पार
बुजुर्गों की दुआओं का भी असर
गुड़िया रानी आयी हमारे घर
रौशन कर दिया हमारा संसार
लायी खुशियों की सौगात अपार
अब ना करू किसी की दरकार
मालिक बस तेरा ही शुक्रगुज़ार
हँसते हँसाते गए बरस गुजर
एक दिन ऐसा आया खूंखार
मज़हब के नाम पर मचाया अंधेर
मासूम के जिस्म को किया दागदार
कसम ख़ुदा की मैं नही ख़तावार
पीठ पीछे किया सारा अत्याचार
कही नही मिली दींन में तफ़सीर
हैरां हूं कब से शुरू हुआ ये फ़ितूर
शरीयत का अंग बताते ज़ाहील ज़ोकर
पर मुख़ालिफ़त करते इल्मी ज़ानकार
मगरिबी तहज़ीब करे इंकार
मशरीकी कौमे बैठी लाचार
खत्म करो नाजायज़ विचार
सज़ा पाये सारे जो है हक़दार
*अब्बास* करे अफ़सोस बारबार
बचा ना पाया अपना लख्तेज़िगर